जरूर पढ़िए दुष्यंत कुमार की ये कुछ चुनिंदा कविताएं

Must Read These Selected Poem Of Dushyant Kumar

हिंदी साहित्य के महान शायर और लेखक दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितम्बर 1933 में उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के राजपुर नवादा गाँव में हुआ था.

 जिनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था. इनके पिता का नाम चौधरी भगवत सहाय और माँ का नाम रामकिशोरी था. दुष्यंत कुमार का विवाह साल 1949 में राजेश्वरी से हुआ था.

उन्होंने कई सारी कविताओं के साथ उपन्यास और नाटक भी लिखा. दुष्यंत हिंदी साहित्य के राजकुमार कहें जाते हैं. उन्होंने जन चेतना जगाने वाली कविताओं का प्रतिपादन किया था. उनकी हर एक कविता का अपना एक अलग मुकाम हैं. लेकिन आज हम आपके लिए उनकी कुछ प्रतिष्ठित और सबसे ज्यादा चर्चित कविताओं का कुछ अंश लेकर आये हैं. उनकी सबसे चर्चित कविता है की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है... 

  • हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

“हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए.

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए.

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए.”

रामधारी सिंह दिनकर की बेहतरीन कविताएं, जो आपके अंदर देशभक्ति और वीरता का संचार कर देंगे

  • मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ

एक जंगल है तेरी आँखों में

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ

तू किसी रेल-सी गुज़रती है

मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है

मैं अगर रौशनी में आता हूँ

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे

और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ

मैं तुझे भूलने की कोशिश में

आज कितने क़रीब पाता हूँ

कौन ये फ़ासला निभाएगा

मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ


  • कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है

चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही

कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये.


  • ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होग

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ

मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते

वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है

कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा

कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में

वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं,ऐसा हुआ होगा

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं

ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा

चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें

कम-अज-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा


  • मत कहो, आकाश में कुहरा घना है

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,

क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,

हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,

बात इतनी है कि कोई पुल बना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,

आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,

शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,

आजकल नेपथ्य में संभावना है ।