तीसरी पुतली चन्द्रकला ~ पुरुषार्थ और भाग्य में कौन बड़ा

तीसरी पुतली चन्द्रकला ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है...... 

एक बार परुषार्थ और भाग्य में इस बाद को लेकर झगड़ा हो गया कि उन दोनों में से श्रेष्ठ कौन हैं? दोनों का झगड़ा इतना बढ़ा की वो दोनों देवराज इंद्र के पास गए, इंद्र भी इस बात का सही उत्तर नहीं दे सकें तो उन्होंने उन दोनों को उज्जैयनी के राजा विक्रमादित्य के पास भेज दिया. उन दोनों ने मानव का भेष धारण कर राजा विक्रम के पास गए. राजा ने उन दोनों की फ़रियाद सुनी और उन दोनों को सही जवाब देने के लिए उनसे 6 महीनें का समय माँगा और उन दोनों ने राजा को समय दे दी और वापस चले गए.

6 महीनें पुरे होने के बाद वो दोनों अपना जवाब लेने के लिए वापस आय तो राजा विक्रमादित्य ने कहा, '' सही मायने में तुम दोनों एक दूसरे के पूरक हो, बिना परुषार्थ के भाग्य अधूरा हैं और बिना भाग्य के पुरषार्थ.'' उन दोनों ने राजा से पूछा आप ये कैसे कह सकते हैं? तब राजा विक्रम ने उन दोनों को 6 महीनें पहले की पूरी कहानी कह सुनाई. 

6 महीने पहले जब आप दोनों समय देकर चले गए तब मैंने अपने राज्य में साधारण भेष में घूमना शुरू किया लेकिन इसका जवाब नहीं मिला इसके बाद मैं दूसरे राज्य गया और वहां एक सेठ के घर मैंने काम करने लगा. उस सेहत ने मुझे इस शर्त पर नौकरी दी की जो काम कोई भी नहीं कर सकेगा अगर वो तुम कर दोगे तभी तुम्हें ये काम मिलेगा. मैंने भी शर्त स्वीकार कर ली. एक बार हम व्यापार के लिए सुंदर से यात्रा कर रहे थे की तूफान आ गया और हमने एक द्वीप पर अपना लंगर दाल दिया. जब तूफान थम गया तब हमने वहाँ से चलने का निश्चय किया लेकिन की से भी वो लंगर नहीं उठा और अंत में उस सेठ ने मुझसे वो लंगर उठाने को कहा और मैंने ये काम कर दिखाया. लेकिन किसी वजह से मैं वहीं छूट गया. कई दिनों तक वहाँ पर भटकने के बाद मैंने एक नगर देखा जिसके प्रवेश द्वार पर लिखा था की इस राज्य की नौकरी सिर्फ उज्जैयनी के राजा विक्रमादित्य से ही विवाह करेंगी. मैं उस नगर में गया और राजमकुमारी ने मेरा परिचय पाकर मुझे शादी कर ली. कुछ महीनों बाद मैंने वहाँ से अपने राज्य के लिए प्रस्थान किया और रास्ते में मुझे एक सन्यासी ने एक माल और छड़ी बेट की. उस मालें की ख़ासियत ये थी की उसे गले में धारण करने वाला व्यक्ति अदृश्य हो सकता था जबकि छड़ी से वो कोई भी स्वर्ण आभूषण मांग सकता था. 

वो लेकर मैं अपने राज्य लौटा और रास्ते में मुझे एक ब्राह्मण और भात दिखाई दिए मैंने वो दोनों उपहार उन दोनों को दे दिया. 

इसलिए मैं कहता हूँ भाग्य और परुषार्थ एक दूसरे के पूरक हैं. वो दोनों राजा के उत्तर से बहुत संतुष्ट हुए और वापस लौट गए.