"जो है ही नहीं मेरा,
उसे खोने से डरता हूँ,
ना जाने कैसा इश्क़ है,
इसमें भी खुश रहता हूँ l"
उलझे हैं खयालों में
डर सा लगने लगा है खुद से..
है नहीं जो आसपास
उसे पैदा कर रहे हैं मन से..
जितना किसी से डरोगे,
उतना बेवजह तडपोगे .
क्यूंकि इन्सान जिससे जाता सहम,
वह डर तो है मन का वहम .
किसी को डर है इंसान का,
तो किसी को हैवान का .
कोई इससे नहीं बचता ,
डर थोडा-थोडा सबको लगता.
डर तो इंसान का वहम है,
जो उसे यूँ ही लग जाता।
तब तक है लगता रहता,
जब तक इंसान सहमता रहता.
अंधेरों का डर यहाँ किस को है….
डर तो उसका है जो उजालो में ना हो सका!