पुराने शहरों के मंज़र निकलने लगते हैंज़मीं जहाँ भी खुले घर निकलने लगते हैं
मैं खोलता हूँ सदफ़ मोतियों के चक्कर मेंमगर यहाँ भी समन्दर निकलने लगते हैं
मैं तेरे हिज़ार की बरसात में कब तक भीगू!!ऐसे मौसम में तो दीवारे भी गिर जाती है..
ना तलवार की धार से ना गोलियों की बौछार से, बंदा डरता है तो सिर्फ अपने बाप की मार से।
तुमसे ही रूठ कर तुम्ही को याद करते हैं
हमे तो ठीक से नाराज़ होना भी नही आता
कभी उसने भी हमें चाहत का पैगाम लिखा था,
सब कुछ उसने अपना हमारे नाम लिखा था,
सुना हैं आज उनको हमारे जिक्र से भी नफ़रत है,
जिसने कभी अपने दिल पर हमारा नाम लिखा था.