एक अकेले से ये रस्म अदा नहीं होती…शुरुआत ही ‘दो’स्ती की ‘दो’ से होती है!
आँखें थक गई है आसमान को देखते देखतेपर वो तारा नहीं टूटता ,जिसे देखकर तुम्हें मांग लूँ
जितना दिखाता हूँ,
उससे जादा याद करता हूँ,
जितना बताता हूँ,
उससे जादा प्यार करता हूँ l
बहुत मन से चाहा था उसने,फिर उसका मन ही ना रहा lसारी मुश्किलों में भी निकला था,उसका पता मैने..उस पते का पता फिर मुझे भी ना रहा l
"तुम में खो के मैं,खुद को पाता हूँ,यही एक सच है,मैं सब से छुपाता हूँ l"
वह अपने करम उँगलियों पर गिनते हैं,
पर ज़ुल्म का क्या जिनके कुछ हिसाब नहीं
हम दूर तक यूँ ही नहीं पहुंचे ग़ालिब ,
कुछ लोग कन्धा देने आ गए थे...