इश्क़ ने गालिब निकम्मा कर दिया,
वर्ना हम भी आदमी थे काम के !
हमें पता है तुम कहीं और के मुसाफिर हो,
हमारा शहर तो बस यूँ ही रास्ते में आया था !
इशरत ऐ क़तरा है दरिया मैं फ़ना हो जाना…
दर्द का हद् से गुज़ारना हैं दवा हो जाना ॥
मुझसे कहती है सादा तेरे साथ राहूंगी ..
बोहोत प्यार करती हैं मुझसे उदासी मेरी !!
कौन पूछता है पिंजरे में बंद पक्षी को ग़ालिब ..
याद वही आते है जो छोड़कर उड़ जाते है !!