पहली पुतली रत्नमंजरी~राजा विक्रम के जन्म तथा सिंहासन प्राप्ति की कथा

Singhasan Battisi Storeis Part 1 पहली पुतली रत्नमंजरी~राजा विक्रम के जन्म तथा सिंहासन

बहुत समय पहले राजा भोज उज्जैन नगर पर राज्य करते थे। राजा भोज आदर्शवादी, सामाजिक एवं धार्मिक प्रवृति के न्यायप्रिय राजा थे। समस्त प्रजा उनके राज्य में सुखी एवं सम्पन्न थी। सम्पूर्ण भारतवर्ष में उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी। उन्हीं के समय से चली आ रही कहावत, 'कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली' आज भी जनसाधारण को प्रभावित करती है।


एक दिन उसे अपने राज्य में राजा विक्रमादित्य की विख्यात सिंघासन मिलता हैं जिसे सिहांसन बत्तीसी के नाम से जाना जाता था. 

सिंहासन के चारों ओर आठ-आठ पुतलियां बनी थीं। पुतलियां इतनी सजीव लगती थीं मानों अभी बोल पड़ेंगी। राजा भोज ने इस सिंहासन पर बैठने के लिए एक दिन निश्चित किया और उस दिन दरबार में जश्न का सा माहौल बना हुआ था। राजा भोज जैसे ही सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़े तभी सिंहासन में जड़ी सभी बत्तीस पुतलियां राजा भोज को देखकर हंसने लगीं। राजा भोज ने सहमकर अपने कदम पीछे खींच लिए और उन पुतलियों से पूछा- 'पुतलियो तुम सब मुझे देखकर एक साथ क्‍यों हंस रही हो ?'

राजा भोज का प्रश्न सुनकर पहली पुतली रत्नमंजरी राजा विक्रम के जन्म तथा इस सिंहासन प्राप्ति की कथा बताती है। वह इस प्रकार है:

उज्जैनी के अम्बावती राज्य में गंधर्वसेन नाम का एक राजा राज करता था, उसने चारों वर्णों की स्त्रियों से शादियां की थी. उसकी चरों पत्नियों से अलग-अलग संताने पैदा हुई. ब्राह्मणी के ब्रह्मवीत नाम का एक पुत्र हुआ, क्षत्रिय कुल की कन्या से उसके तीन पुत्र हुए जिनके नाम इस प्रकार थे, शंख, विक्रम और भर्तृहरि. वैश्य और शूद्र कुल की पत्नियों से एक-एक पुत्र का जन्म हुआ जिनका नाम रखा गया, चंद्र और धन्वंतरि. राजा ने अपने अपने बड़े पुत्र ब्रह्मवीत को राज्य का दीवान बना दिया लेकिन उससे राज्य का बागड़ोर सम्भला नहीं गया और वो कुछ ही दिनों में वहाँ से राज्य छोड़कर चला गया. कई दिनों के बाद वो धारानगरी में एक ऊँचे पद पर आसीन हुआ और एक दिन राजा की हत्या करके वहाँ का राजा बन गया लेकिन जब वो अपने राज्य उज्जैन लौट रहा था तभी रास्ते में ही उसकी मौत हो गई. इधर राजा के दूसरे पुत्र शंख को इस बात का संदेह हुआ कि पिता जी विक्रम को योग्य समझकर उसे राज्य का राजा बना देंगे और इसकी वजह से उसने एक रात्रि में पिता की हत्या करके स्वयं को राज्य का राजा घोषित कर लिया और अपने सभी भाइयों का भी वध कर दिया. लेकिन किसी तरह से विक्रम वहाँ से बच निकले और वन में आकर रहने लगे और घनघोर तपस्या करने लगे. एक दिन उनके दुष्ट भाई को विक्रम के ठिकाने का पता चल गया और उसने विक्रम को मारने के लिए एक तांत्रिक की सहायता मांगी. तांत्रिक ने योजना बनाई की विक्रम को माँ भगवती की आराधन के लिए राज़ी करके हम उसकी बलि दे देंगे. लेकिन विक्रम को इस बात का अनुमान हो गया और उन्होंने उस तांत्रिक से देवी को प्रणाम करने की विधि पूछा और वो तुरंत भूमि पर लेटकर विक्रम को विधि सीखने लगा और पास में खड़े शंख ने विक्रम के धोके में उस तांत्रिक का वध कर दिया और बाद में विक्रम ने तलवार से शंख की गर्दन धड़ से अलग कर दिया. 

विक्रम को उज्जैयनी  का राजा बनाया गया और विक्रम राजा बनकर वहाँ राज्य करने लगे. एक दिन राजा विक्रम शिकार खेलने गए और जंगल में राह भटक गए और खो गए. वहाँ पर उन्होंने एक महल देखा उस महल के द्वार पर जाकर उन्होंने पता किया तो वो महल धारानगरी के राजा बाहुबल के दीवान तूतवरण का था. दीवान  विक्रम को प्रणाम कर उनका आवभगत किया और उसके बाद उसने राजा से कहा, विक्रम आप बहुत ही प्रतापी और यशस्वी राजा भी बन सकते हैं अगर राजा बाहुबल आपका राजतिलक करे और यहीं नहीं अगर उन्होंने भगवान शिव से मिला अपना स्वर्ण सिंहासन भी आपको भेंट में दे तब आप चक्रवर्ती सम्राट बन जायेंगे. 

धारानगरी के राजा बाहुबल ने अपने दीवान के कहने अपर विक्रम का राजतिलक किया और अपना स्वर्ण सिंहासन भी उन्हें सप्रेम भेंट में दिया और उसके बाद विक्रम चक्रवर्तिन सम्राट विक्रमादित्य बन गए जिसकी कृति और यश कर गुणगान तीनों लोकों में हुआ.