वह अपने करम उँगलियों पर गिनते हैं,
पर ज़ुल्म का क्या जिनके कुछ हिसाब नहीं
हम दूर तक यूँ ही नहीं पहुंचे ग़ालिब ,
कुछ लोग कन्धा देने आ गए थे...
दो मुलाकात क्या हुई हमारी तुम्हारी,निगरानी में सारा शहर लग गया।
जिंदगी एक सजासी हो गई है,
गम के सागर मे कुछ इस कदर खो गयी है,
तुम आजाओ वापिस ये गुजारिश है मेरी,
शायद मुझे तुम्हारी आदत सी हो गई है ।
आकाश से ऊँचा कौन – पिता
धरती से बड़ा कौन – माता
भले ही किसी गैर की जागीर थी वो,
पर मेरे ख्वाबों की भी तस्वीर थी वो,
मुझे मिलती तो कैसे मिलती,
किसी और के हिस्से की तक़दीर थी वो