वो तो अपना दर्द रो-रो कर सुनाते रहे,हमारी तन्हाइयों से भी आँख चुराते रहे,हमें ही मिल गया खिताब-ए-बेवफा क्योंकि,हम हर दर्द मुस्कुरा कर छुपाते रहे।
तोड़ा कुछ इस अदा से तालुक़ उस ने ग़ालिब,कि सारी उम्र हम अपना क़सूर ढूँढ़ते रहे।
आंखों के हर कतरे का बोझ उठाता था, उठाता हूँ और उठाता रहूँगा ।मगर आंसुओं को ना कभी बेवफा कहूँगा ।इस जन्म का जो कर्ज है अगले जन्म में जरूर बगैर कर्ज मुस्कराउंगा ।
बिखरे थे जो अल्फ़ाज इस कायनात मेंसमेंटा है उन्हें चंद पन्नों की किताब मेंअब दुआ नहीं मांगता बस पूंछता हुं खुदा सेअभी कितनी सांसे और हैं हिसाब में..??
चलो यूँ ही सही तुमने माना तो सही
मजबूर कही हम थे ये जाना तो सही
कब कहा हमने की हम बेगुनाह थे
कुछ गुनहगार तुम भी थे ये माना तो सही